पहाडोँ का ओ चलता पानी
पलभर रुँकता है ओ पानी
नदि मोड़ मे पीछे मुड़ के
निहार ओ लेता तीव्र वेग से
जिस धरा से उँदगम उसका
उत्तँराखण्ड के पर्वत शिखँला
पलभर रुँक के नमन: ओ करता
छल छल करके चलता पानी
जब मेडँ लगा के नदियोँ मे
नहरो मे चलता है ये पानी
बौल मे दौडे छल छल करके
ग्रेहुँ धान फसल को
जड़ चेतना देता है ये
फिर भी देखोँ…
पथ पथ मे मेली
अस्त्तिव है खोती
जिस धरा से चलती है ये
कोई कैसे समझे…
उस पानी कि दुख र्व्यथा
जिसकी नीयती चलना है
निर्स्वाथ ही उसकी धारा हे
निर्स्वाथ ही उसकी धारा है
लेख-सुन्दर कबडोला
गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
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