‘कितनी किमती थी ओ चिट्टी’
जिसको मै था देता
उसकी खुशिया मे ही पाता
गाँव का था मे एक तारा
जिस बाँटु से होकर मे था जाता
गाँव कि ताई बेटि ब्वारि
बडे आस से पुछ ही लेती
“ओ डाँक्वान दाज्यु”
म्यर चिट्टी ले आई छा कै
दिल ले म्यर भौते दुखछि
“ना हो ब्वारि नि छू आई”
ना सुन के छलकि आँखे जिसकी
कितनी किमती थी ओ चिट्टी
छिडि लडाई कारगिल कि
शरहद से राजखुशी पैगाम ना होता
माँ कलेजा फट ही जाता
चिट्टी मे होती कुछ ऐसी बात
शरहद मे बैठा लडका उसका
टक टकि यु लगै
ईजा बौज्यु भै बैणि चिट्टी पतर सुवा कु
ना जाने कितने बार पढा था
उस फौजि नै
उस फौजि नै
कितनी किमती थी ओ चिट्टी
ना सुन के छलकि आँखे जिसकी
चिट्टी मे होती कुछ ऐसी बात
फिर जो लिखती थी ओ चिट्टी
शाम सवेरे रात उजाले
लुकि छुपि कि मन कु बात
खुश दुखै कि होती बात
चिट्टी मे होती कुछ ऐसी बात
हराऊ हरेला चिट्टी मे आता जाता रहता
अगर तू लिखता रहता चिट्टी
अगर तू लिखता रहता चिट्टी
कितनी किमती थी ओ चिट्टी
चिट्टी मे होती कुछ ऐसी बात
ना सुन के छलकि आँखे जिसकी
गुम होती हस्तलिखित लिखावट
एक चिन्ता एक बहेस..?
लेख-सुन्दर कबडोला
गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
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