जो दहांड रहा है चीन हमारे धरती माँ पे…

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ऐ मेरे देश वतन के लोगो
जरा याद करो उस नारि को
लक्ष्मी बाई झाँसि वालि
सन् 1857 कि ओ क्राँति को
जो मर मिटे इतिहास बने

ऐ देश सपूँतो जोश भरो
जो दहांड रहा है चीन हमारे
धरती माँ पे…
इतिहास के पन्ने पढ के देखो
भुँजा मे अपने जोश भरो

जो दहांड रहा है चीन हमारे
धरती माँ पे…
आँच ना आने देगे हम
जब तक साँस कि डोरि ना टूटे
आँच ना आने देगे हम
धरती माँ पे अपने हम

जो बुरी नजर से चीन बडा है
धरती माँ के पविञ धरा पे
जरा याद करो उन वीरो को
जो शहीद हुऐ है
शरहद कि माटि मे
ऐ देश सपूतो जोश भरो
जो दहांड रहा है चीन हमारे
धरती माँ पे…

ऐ मेरे देश वतन के लोगो
र्कज चुकाना है माटि का
ना लूटने देगे ना मिटने देगे
देश धरा कि माटि को
इतिहास गँवा है
चीन ने घोपे कितने खँजर
धरती माँ के छाँती पर
अब और नही
देश कि माटि तिलक लगा के
भुजा मे अपने जोश भरो
ऐ मेरे देश वतन के लोगो
र्कज चुकाना है माटि का
जब तक साँस कि डोरि ना टूटे
जब तक साँस कि डोरि ना टूटे
जब तक साँस कि डोरि ना टूटे

लेख-सुन्दर कबडोला
गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
© 2013 sundarkabdola , All Rights Reserved

“नारी जात तूँ हल्ला बोल निर्भय हो के चड़ि बन के”

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नारी जात तूँ हल्ला बोल
निर्भय हो के चड़ि बन के
रँक्त धरा मे तिलक लगा

चढता सूरज क्रोधित ज्वाँला
बनके तूँ नारी चल
‘ना कृष्णा है बस तृष्णा’

“ना राम आऐगा लँका ढाँनै
ना भीम शँपथ का लेने वाले”
ये कलयुग है अबला नारी
बस चिँर हरण करने वाले
स्वय ही रक्षा कर ले नारी
थाँम कै तूँ अब दाँथुल दतैई
स्वय कि रक्षा कर ले अब
नर सँगहारी चड़ि बन के

जो लूटने आऐ आँबरु तेरी
तूँ चड़ि बन के
रँक्त धरा मे तिलक लगा
तूँ दाँथुल उठा तूँ कमर लगा
दुश्षाण जैसे चार तरफ

नारी जात तूँ हल्ला बोल
निर्भय हो के चड़ि बन के
रँक्त धरा मे तिलक लगा
रँक्त धरा मे तिलक लगा
ना राम मिलेगा
ना कृष्णा जैसा
ना भीम शँपथ का लेने वाला
नारी जात तूँ हल्ला बोल
निर्भय हो के चड़ि बन के

लेख-सुन्दर कबडोला
गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
© 2013 sundarkabdola , All Rights Reserved

चलता पानी

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पहाडोँ का ओ चलता पानी
पलभर रुँकता है ओ पानी
नदि मोड़ मे पीछे मुड़ के
निहार ओ लेता तीव्र वेग से
जिस धरा से उँदगम उसका
उत्तँराखण्ड के पर्वत शिखँला
पलभर रुँक के नमन: ओ करता
छल छल करके चलता पानी

जब मेडँ लगा के नदियोँ मे
नहरो मे चलता है ये पानी
बौल मे दौडे छल छल करके
ग्रेहुँ धान फसल को
जड़ चेतना देता है ये
फिर भी देखोँ…
पथ पथ मे मेली
अस्त्तिव है खोती
जिस धरा से चलती है ये

कोई कैसे समझे…
उस पानी कि दुख र्व्यथा
जिसकी नीयती चलना है
निर्स्वाथ ही उसकी धारा हे
निर्स्वाथ ही उसकी धारा है

लेख-सुन्दर कबडोला
गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
© 2013 sundarkabdola , All Rights Reserved

ओ बुढि राते

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पहाडोँ मे बिति ओ दिन राते
कहा गये रे ओ बाते
जब आँगण मे सज्जती थी ओ मेहफिल
ठण्ड पूँष कि थी ओ बुढि राते (लम्बी राते)
चाँदनी भी हँसति थी तारो सँग
जब सज्जती थी बँखाई आँगण मे ओ मेहफिल
झव्ड चाँचर कि होती थी ओ राते
बुँढ बाँढा फँसक फँसाक आण काथ कि ओ उलझि राते
जब चलती थी ओ ब्यार
देव वाँध्य कि होती झनकार
कम पड जाती थी ओ बुढि राते
कुछ ऐसा बिता पहाडो मे पहले
जो फिर ना लोटा
पहाडो कि ओ बुढि रातोँ मे

तुम बदले हम बदले
ना बदले ओ बुढि राते
आज भी चलती है ओ राते
आज भी चलती है ओ राते

लेख-सुन्दर कबडोला
गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
© 2013 sundarkabdola , All Rights Reserved

मै,सँस्कृति और उत्तँरा (उत्तँराचल)

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मै,सँस्कृति और उत्तँरा (उत्तँराचल)

प्रकृति से लिपटी धरोहर मेरी
कुँमो गँडु मे फैला आँचल
मै और मेरी वन सम्प्रँधा
अनत् रुप मे बिखरे शाँखा
अदभुत रचना सँस्कृति मे मेरी
देव नाम का शँखनाद उजागर
मै हुँ उत्तँरा
देवलोक कि तप भुमि
महाकाव्य कि बाँहे फैली पथ रेखा
मै हुँ उत्तँरा

क्या कहुँ अब मेरी उत्तँरा
क्या-क्या ना उजड़ा
दारुण (असहाय्) जैसा

दिशा हिन को उडते पँछि
तेरी बोली मँड्डवे कि खेति
कागज मे चलती पैसो मे बनती
विवश रुप मे बैठि सँस्कृति तेरी
देव वाँद्य भी वैराग्य औठँ मे
अब ये समृद्धि उत्तँरा तेरी
तिमिर हो रही जड़ चेतना तेरी

बँजर से होती तेरी सँस्कृति
फैन्शी फैशन विराणि सँस्कृति
वैभव के कारण मोक्ष प्राप्ति
तत पे बैठा पहाडि मानव
पहेचान भुला के तृष्णा ले के
छोड चले रे आँचल तेरी
भुला रहे ये सँस्कृति तेरी

प्रकृति से लिपटी सुन्दर धरोहर
कोई खोदे आँचल जल स्रोत किनारे
कोई सुखाऐ तेरे नव जीवन चेतन

ओ रे उत्तँरा
तूँ और तेरी विकल वेदना
बेसुद होती उत्तँरा सँस्कृति आँचल

ओ रे उत्तँरा
कँहा गये ये हुँडकि ढोल
सुने मे नही आते कोई बोल
क्या ये तेरी रित-रिवार्ज कि पिड़ा है
या मैरे कलम को हो रहा है भ्रँम र्निदेश… भ्रँम र्निदेश… भ्रँम र्निदेश?

लेख-सुन्दर कबडोला
गलेई- बागेश्वर- उत्तराँखण्ड
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