‘हिमाल कोण से दुल्हन जैसी
अपने मिलन को दौडि’
प्रेम रँग मे रँगती
कल-कल करती
जल रास रसिया
र्निमल प्रतिबिम्ब शाँन्त सरोवर
निछवर धारा- कटोर धरातल
आलिँगन लेती मिलन घोषणा
करे याञा समुद्र तट को
बाँधित होती हर मोड पे चलती
बाँहे फैली कितने पथ पे चलती
संकल जनोँ कि प्यास बुझाती
गाँव से लेकर नगर-नगर मेँ
हरयाली-खुशयाली देती
जँह-जँह से होकर बँढती
तँह-तँह से मेली गँढती
अशक्त दशा मे समक्ष बर्बरता
जीव प्राणी सहम भी जाते
खेत-खलियान गीत भी गाते
धरती माता प्यास बुझा दे
छण-मण-छण-मण
बर्रखा रुपि आँसू लाती
सर्म्पुण जगत कि प्यास बुझाती
संकुचित रुप इति बना के
सार्मथ्य होती मिलन दिशा
प्रेम रँग मे रँगती देखो
कठीन याञा सफल बनाती
“कुछ क्षण ठहर भी जाती
अपने मिलन तट किनारे”
समुद्र है खारा
नदी है शीतल
मिलन भी होता आत्म मंथन जैसा
“प्रकृति जगत कि सच्ची प्रेम धारणा
चल के देखो देव मान्यता”
लेख-सुन्दर कबडोला
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